तारा पाठक, उत्तराखंड
माँ तेरा आँचल
मैं छोटी सी लतिका
इतराती_बलखाती बढ़ती।
तूफ़ानों की खिल्ली उड़ाती
झंझा से नज़रें लड़ाती।
झुलसाती लू का खौफ न मुझ पर
अंधड़ का कुछ रौब न मुझ पर।
अतिवृष्टि मुझ तक पहुंच न पाती
अनावृष्टि मुझे न अकुलाती।
पतझड़ में मैंने मधुमास पाया
फूलों के झूलों ने मुझे झुलाया।
क्योंकि मेरे सिर पर है_
वटवृक्ष सा सामर्थ्य वान
“माँ तेरे आँचल का साया।”
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