तारा पाठक
हल्द्वानी, उत्तराखंड
जब तक हम प्रकृति के आगोश में रहकर दिनचर्या में लगे रहते थे, तब तक हम पूर्णरूपेण स्वस्थ और प्रसन्न होकर जीते थे।शनै:-शनै: हमारे हाथ-पाँव माँ के आँचल से बाहर निकलने लगे। हमारे दिमाग में विकास के कृमि उपजने शुरू हुए ही थे कि हमने बिना सोचे-विचारे दिशाहीन होकर अपने पंख फड़फड़ाने शुरू कर दिए।
जिस माँ से हम अस्तित्व में आए, उल्टे उसी के विनाश की क्रिया में तत्पर होकर हमने अघोषित विजय का झंडा फहराना शुरू कर दिया, अपनी ही माँ की पराजय के निहित।
हम दिन-प्रतिदिन बनावटीपन की ओर अग्रसर होते चले गए।। माँ ने हमें प्रचुर मात्रा में शुद्ध प्राणवायु-अमृतमय जल-प्रसाद तुल्य भोजन प्रदान किए। लेकिन, हमने उनमें भी रंग-बिरंगे, चटपटे जहर घोल दिए।
बात करते हैं हमारे प्राचीन चने-चबैनों की, उनकी पौष्टिकता-शुद्धता की।हमारे तीज-त्योंहारों से जुड़े होने के कारण इनका प्रयोग आवश्यक हो जाता था। इनके बारे में जानकारी होने पर आपको महसूस हो जाएगा कि विकास के फेर में पड़कर हमने क्या-क्या खो दिया?
उमि-
खेतों में गेहूंँ की फसल पककर तैयार हो जाने पर गेहूँ के पौंधों को आधे तने से काटकर छोटे-छोटे मुट्ठे बना लिए जाते थे। इनकी बालियों को छिलके सहित आग में भुना जाता था। दाने सिक भी जाएं और जलैं भी नहीं, कितनी देर तक इनको आग में भुनना है? अनुभवी व्यक्ति को इसका पता रहता था।
भुनी बालियों के ठंडे हो जाने पर हाथ से माण लिया जाता था। सूप से छिटककर गरम-गरम खाने पर जो स्वाद मिलता था, उसका वर्णन करना ‘गूंगे का गुड़’ जैसा होगा। छोटे-छोटे बच्चे क्या नौजवान या उम्रदराज लोग भी वर्षभर उमि खाने के इंतजार में रहते थे।
भुने हुए गेहूंँ खाने के फायदे-
भुने हुए गेहूं खाने से डायजेशन और मेटाबॉलिज्म तेज होता है। मेटाबॉलिक रेट बढ़ने से चर्बी का जलना तेज होता है। एक्सरसाइज करने के बाद ज्यादा चर्बी जलेगी और शरीर पतला होने लगेगा। वजन घटाने के लिए यह बढ़िया भोजन है।
गेहूं का आटा कई प्रक्रियाओं से गुजरने के पश्चात प्राप्त होता है। इसकी असली ताकत और पोषण निकल जाता है। मगर साबुत गेहूंँ के अंदर सारे न्यूट्रिएंट्स होते हैं। भुनने की वजह से इसे पचाना आसान हो जाता है। यह पेट में जाकर काफी जल्द घुल जाता है और विटामिन, प्रोटीन, मिनरल छोड़ने लगता है। पेट के मरीज के लिए भी यह फायदेमंद होता है।
अनेकानेक बीमारियों में इसका प्रयोग लाभप्रद होता है।
खा्ज-
खेतों में खरीफ की फसल तैयार होने पर ताजे मणाई वाले चावल को भूनकर खाजे बाए जाते थे। तलाऊं खेतों में तो एक धान की किस्म ऐसी होती है, जिसका प्रयोग केवल खाजों के लिए ही किया जाता है। इसे सिरौव कहते हैं। गर्म तवे पर डालकर घुमाने से इनकी फूल कर लाई हो जाती है।
कौंणी (मिलट) के भी खाजे बनते हैं, कौंणी का भात खसरा (ददूरे) में बहुत लाभप्रद होता है।
कच्चे चावल चबाने के फायदे-
भूरा, काला, लाल या जंगली चावल खा सकते हैं, इनमें सफ़ेद चावल की तुलना में ज़्यादा एंटीऑक्सीडेंट, खनिज और विटामिन होते हैं।
कच्चे चावल खाने से जुड़ी कुछ और बातें-
चावल को अच्छी तरह चबाने से पाचन क्रिया में मदद मिलती है।
चावल में मौजूद फ़ाइबर पाचन क्रिया को आसान बनाता है।
चावल में मौजूद विटामिन बी-1 नाड़ियों और दिल के लिए फ़ायदेमंद होता है।
चावल खाने से शरीर की अंदरूनी सफ़ाई होती है।
बिरुड़-
बिरुड़ पाँच-सात अंकुरित अनाजों का एक समूह है। उत्तराखंड में भादो मास में गौरा-महेश से जुड़ा लोकपर्व सातों-आठों मनाया जाता है, जिसमें पाँच-सात साबुत अनाजों को तीन दिन तक भिगोकर जल श्रोतों में धोया जाता है। पूजा में प्रसाद के तौर पर इसे गौरा-महेश को चढ़ाते हैं,तदुपरांत छौंक लगाकर प्रसाद स्वरूप इसे खाया जाता है। यह बहुत ही उत्तम, स्वादिष्ट और पौष्टिक नमकीन व्यंजन है।
बिरुड़ खाने के फायदे-
बिरुड़ यानी अंकुरित अनाज में मौजूद विटामिन ए अच्छी दृष्टि बनाए रखने में मदद करता है।
बिरुड़ मौजूद फाइबर और प्रोटीन ग्लूकोज़ अवशोषण को धीमा करते हैं, जिससे रक्त शर्करा में वृद्धि को रोका जा सकता है।
अंकुरित अनाज में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट सूजन को कम करने और गठिया जैसी स्थितियों के लक्षणों को कम करने में मदद करते हैं।
अंकुरित अनाज में मौजूद विटामिन ई और फ़ोलेट जैसे पोषक तत्व मस्तिष्क के स्वास्थ्य का समर्थन करते हैं और संज्ञानात्मक कार्य में सुधार करते हैं।
अंकुरित अनाज में मौजूद ओमेगा 3 फ़ैटी एसिड हृदय स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करता है।
अंकुरित अनाज में मौजूद सल्फ़ोराफ़ेन डायबिटीज़ टाइप को कंट्रोल करने में मदद करता है।
अंकुरित अनाज में मौजूद आयरन खून की कमी को दूर करता है।
अंकुरित अनाज पचाने में आसान होते हैं और संवेदनशील आंत्र पथ वाले लोगों के लिए उपयुक्त होते हैं।
च्यूड़-
दीपावली के त्योहार से कुछ दिन पूर्व नई फसल के धानों को भिगोकर रख दिया जाता है।
उन दिनों कुछ लोग धान को पानी में भिगाने के अलावा ककड़ी के पानी में भी भिगोकर रखते थे। दो-तीन दिन अच्छे से भीग जाने पर धानों का पानी निकालने हेतु छन्नी में रख देते हैं, इसके पश्चात् तवे में भूने जाते हैं, भुनते समय कुछ धान फूल कर लाई भी बन जाते हैं।
भुने धानों को गरम-गरम ही ओखली में कूटना पड़ता है। धान भुनने और कूटने की प्रक्रिया भी विशेष रहती है। वरना च्यूड़े या तो कट कर चूरे हो जाएंगे या फिर धान के छिलके पूरी तरह से निकल नहीं पाएंगे। धान के छिलके वाले दानों को क्वार रह गए कहते हैं।
ककड़ी के पानी वाले धान के च्यूड़ों को चोखे च्यूड़े कहते थे। चोखे च्यूड़े सयाने लोग (जो कि धुली हुई धोती से रसोई घर में ही खाना खाते थे) खाते थे। बच्चों के लिए पानी वाले या जूठे च्यूड़े होते थे।
दूसरी दीपावली यानी गोवर्धन पूजा के दिन च्यूड़े कूटने के बाद भय्या दूज (दुती या बग्वाली) को भगवान जी को चढ़ाकर बेटियाँ सबको च्यूड़े लगाती हैं, जिसे ‘च्यूड़़ पुजण’ कहते हैं। उन दिनों दूज को नारियल का रिवाज नहीं चलता था।
च्यूड़े काफी मात्रा में कूटे जाते थे। ससुराल वाली बेटियों और परदेश गए हुए बेटों (बाहर शहरों में नौकरी वाले) के लिए च्यूड़े संभालकर रख दिए जाते थे।
च्यूड़े चबाने के फायदे-
गौरतलब है कि च्यूड़े अखरोट और भंङीरा (छोटे आकार के दूधिया स्वाद के दाने) मिलाकर खाए जाते थे।चावल की पौष्टिकता के साथ अखरोट प्रतिदिन आप एक मुट्ठी खा सकते हैं, ये लगभग 28 ग्राम होता है। यह आपके मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, उसे कॉग्निटिव लाभ पहुंचाने के लिए लिए पर्याप्त है। एक मुट्ठी अखरोट आपको पर्याप्त मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट, ओमेगा-3 अन्य पोषक तत्व प्रदान करते हैं। निर्धरित मात्रा में अखरोट खाने से शरीर को अतिरिक्त चर्बी भी नहीं मिलती है।
भट-सोयाबीन-गेहूँ
सर्दी की शुरुआत के साथ ही पहाड़ों में भुने हुए भट, सोयाबीन और गेहूँ का चबैना चरम पर पहुंच जाता था। वर्षा या बर्फबारी के दिनों में गाँव भर के लोग एक घर में या कुछ-कुछ लोगों के अलग-अलग समूह अलग-अलग घरों में एकत्रित होकर सगड़-अगेठी या रौण के चारों ओर घेरा बनाकर आग तापते थे और बुजुर्ग आमा-ज्याड़जा (ताई) लोग आ्ण (पहेली) का्थ, किस्से कहानी सुनाते थे। सुनने वाले ऊं-ऊं करके हुङुर देने के साथ ही थालियों में गरमा-गरम भुने चबैने (भट-सोयाबीन-गेहूँ) दाने-दाने करके चबाते जाते थे ।
भुने भट-सोयाबीन और गेहूँ के फायदे-
साबुत भुने हुए अनाजों की तासीर गर्म होती है, इनको चबाने से सर्दी से राहत मिलती है। भट और सोयाबीन खाने से कॉलेस्ट्रॉल और चर्बी कम होती है, इनसे शरीर को प्रचुर मात्रा में प्रोटीन मिलता है। हड्डियों की मजबूती में इजाफा होता है। गेहूंँ में पर्याप्त मात्रा में फाइबर होता है।
उपरोक्त चबैने उन दिनों गृह निर्मित, सर्व सुलभ, स्वास्थ्यवर्धक और प्राकृतिक तत्वों से भरपूर होते थे। खाने के पश्चात् इनके दुष्प्रभाव नगण्य ही होते थे। ऋतुओं के अनुसार हमारे शरीर को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, इनसे प्राप्त होता था।
ये चबैने मात्र नहीं हैं, इनसे शरीर ही स्वस्थ नहीं रहता वरन् समाजिक रिश्ते भी मजबूत होती हैं। हमारे पूर्वजों की देन सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराएं भी जिंदा रहती हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कह नहीं सकते कि इस प्रकार की जीवन-शैली को अपनाना संभव हो भी सकेगा? लेकिन, हम यथासंभव प्रयास तो कर ही सकते हैं। जैसे यात्रा के दौरान घर का बना हुआ भोजन, ताजे नहीं तो कम से कम साबुत अनाजों को घर पर अंकुरित करना, मजबूरी न हो तो बोतलबंद और पैक्ड वस्तुओं का इस्तेमाल न करना और सबसे अहम बात यह है कि हम शाकाहारी भोजन करें।
हमारे पूर्वजों की जीवनचर्या को समझा जाय तो हम कुछ हद तक तो स्वस्थ रह ही सकते हैं।
(गूगल से कुछ तथ्य साभार)
@कॉपी राइट
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