तारा पाठक
उत्तराखंड
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यादों में बसा पहाड़ … प्राचीन वस्त्राभूषण-कुमाऊनी
प्राकृतिक अवस्था से सभ्यता की ओर उन्मुख मानव समाज का इतिहास सर्वदा परिवर्तनशील रहा है। अंतर्मन में निहित क्रियाशीलता के कारण वर्तमान को गढ़ने की जितनी तीव्र ललक होती है, उतनी ही भूतकाल को सहेजने और समझने की जिज्ञासा हमारे स्वभाव में होती है। हम ऐसे हैं तो हमारे पूर्वज कैसे थे। ये विचार हमें अतीत में झांकने को प्रेरित करते हैं और ज्ञात सूत्रों (लिखित या मौखिक) की कड़ियां जोड़कर हम भूत-वर्तमान का तुलनात्मक अध्ययन करने की कोशिश करते हैं।
हमारे रीति-रिवाज,बोली-भाषा, हमारा पहनावा हमें विशेष पहचान दिलाते है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल की भौगोलिक स्थिति, व्रत-त्योहार, सामाजिक आयोजनों एवं लिंग विशेष, उम्र विशेष के अनुरूप हमारे वस्त्र-आभूषण अलग-अलग प्रकार के होते हैं।
पुरातन समय के पुरुषों के वस्त्र धोती-कुर्ता, कुर्ता-पैजामा, भोटी,सुराव, मिरजई, कोट, टोपी, बंडी, कंछोप, टांक (पगड़ी)। वहीं, महिलाओं के वस्त्र-धोती, बिलौज, पेटीकोट, घाघरा, पिछौड़ा (वर्तमान का लहंगा-दुपट्टा), नौ पाट-बार पाटै किरीप का संजाब लगी घागरि (नौ-बारह कली का घाघरा) आंगड़ि, खानें आंगड़ि, कफ वाला कुर्ता, गा्त। इसी तरह बच्चों (लड़कों) के वस्त्र में कुर्ता-पैजामा, जङी (जांघिया) टोपी, सल्तराज तो बच्चों (लड़कियों) के वस्त्र में झगुल (वर्तमान की मैक्सी), फरौक, सलवार-कमीज आदि।
पुरातन समय के आभूषण (जेवर) पुरुषों के कान के मुनड़े, मुनड़ि (अंगूठी) छल्ला, कड़ा। महिलाओं के (पैरों के) आभूषण चैनपट्टी, पैजेब, छा्ड़, इमिरती, झांवर, शकुन्त्वाल, धागुले, चुटकी (बिछिया)। हाथों के आभूषण में चूड़ी, कंगन, पहुँची, कंकण, कड़े, धागुले, मुनड़ि (अंगूठी) छल्ला, बाजूबंद।
कमर के आभूषण में कमरबंद (तगड़ी), लटकन (चाबी का गुच्छा), गले के आभूषण में चर्यों (काले मोती की माला), मटरमा्ल, चँद्रहार जंजीर, प्ँचलड़-सतलड़, टीप, गलोबंद, तिलहरी,अठन्नी-चवन्नी मा्ल (सिक्कों की माला) मूंङै मा्ल, हंसुलि, सु्त्त। कालांतर में चम्पाकली हार और मंगलसूत्र।
नाक के आभूषण में नथ, फुल्ली (लौंग) कुंदन वाली नथ, बुलाकी। कानों के आभूषण में कनफूल, बाला, झुमके, मुनड़े, झुपझुपी, लटकन, ऐरन। इसी तरह सिर एवं बालों के आभूषण में वाड़ि, शिशफूल, किलिप, धम्यल, फुन, रीबन, ड्वार (ऊन की डोरी)। बच्चों के आभूषण में
हाथ पैर के धागुले, कंज्योड़ि (करधनी) कानों की बाली, फुल्ली (लड़कियों की)।
जिसे आज हम सिंदूर (लाल वाला) बोलते हैं। ईजा लोग उसे घी में घोल कर माथे पर बिन्दी लगाते थे। उसी के सूखे पाउडर से मांग भरते थे। लाल टूल की पतली पट्टी में तांबे का सिक्का बाँधकर हाथ की चूड़ियों के आगे बाँधते थे। घी की बत्ती जलाकर ताँबे या कांसे के बर्तन पर दिए की कालिख जमा करते, बाद में उस कालिख को खुचर कर गाय के घी में मिलाकर बच्चों के लिए या स्वयं के लिए काजल बनाते थे। ताजे दूध के झाग या मलाई को क्रीम की जगह प्रयोग करते थे।मजेठी पीसकर मेंहदी रचाते थे। भेकू (भीमल), चिफव जड़ या रीठे से शैम्पू और इजी वॉश तथा गौंत (गोमूत्र) से बॉडीवॉश का काम चलाते थे। खड़िक, पयाँ (पद्म वृक्ष) बाँज, फयांट की लकड़ियों की राख से डहौव तैयार किया जाता था, जिसमें उबालकर धोने से फा्ट-पुराण भिदाड़ (कपड़े) भी तारे जैसे चमकने लगते थे। डिटर्जेंट भी अपना प्राकृतिक था। दाँतों की सफाई कोयला, तिमूर की छाल या फिर बुसिल ढुंग (रेतीला पत्थर ) से करते थे। ऊँचे पहाड़ वासियों के वस्त्र ज्यादातर ऊनी एवं खद्दर के या पशुओं की खाल के होते हैं। ऊनी वस्त्रों में बनैन (स्वेटर) अदबौंई (हाफ स्वेटर), पुर बौंई (फुल स्वेटर) कोटी, जुराब, टोपी, मफलर, पंखी आदि होते थे। मैदानी क्षेत्र वासियों के वस्त्र लट्ठ, मारकीन, मलमल, गाड़ा, खद्दर, टस्सर, पॉपलीन आदि के होते थे।
रोजाना पहने जाने वाले वस्त्रों के अलावा शादी-ब्याह में, पर्व-त्योहारों में पहने जाने वाले वस्त्रों में से शादी के दिन बर (दूल्हा) पीली धोती पीला कुर्ता, सिर पर मुकुट और पीली पाग (पगड़ी) कलाई में कंकण, दांतों के बीच रुमाल दबाकर हाथ में आइना पकड़े रहता था और उस आइने में अपनी सूरत निहारता था।बकौल ईजा-बर आरसी में आपूंकें यै वील देखंछी कि आजा दिन मैं बरोबरि खपसूरत क्वे न्हैं (दूल्हा आइने में अपनी सूरत इसलिए निहारता था कि आज के दिन मेरी तुलना में दूसरा कोई खूबसूरत नहीं है)। सभ्यता का पहिया आगे सरकने लगा तो दुल्हे के पहनावे में कोट-पैंट की उपस्थिति दर्ज हुई और हर दूल्हे का यही ख्वाब होता कि अपनी शादी में मैं भी कोट-पैंट पहनकर जाऊं परंतु कीमत की दीवार इतनी ऊंची होती थी कि कोट वाला हैंगर जहां टंगा होता था वहां तक हर दुल्हे का हाथ नहीं पहुंच पाता था। कालांतर में लोग मांगकर कोट पहनने लगे।जब किसी लड़के की शादी तय होती थी तो अन्य व्यवस्थाओं के साथ ही यह भी जानकारी ली जाती थी कि गाँव में शादी का कोट किसके पास है।
ब्योलि (दुल्हन) शादी के दिन मखमल या सनील का घाघरा पिछौड़ा, सनील का ही बिलौज, रंग्वाली पिछौड़ा, बालों में लाल धमेली-फुन, चिमटी, माथे पर वाड़ी पहनती हैं। वाड़ी सोने का छोटा सा पत्रा होता है, जिसे महिलाएं मात्र शादी के दिन ही पहनती हैं। अन्य आभूषण सामर्थ्यानुसार होते थे। दुल्हन की कलाई में कंकण, हाथ में बटुवा और रुमाल होता था। लड़कियां शादी से पहले बिच्छू, चर्यो, नहीं पहनती थी। मांग भी नहीं भरती थी। सुहागन के हाथों में काँच की लाल चूड़ियां, गले में काला चर्यो, माथे पर मांग और इंगूर वाली बिन्दी, पैरों में चैनपट्टी और बिच्छू, नाक में फुल्ली ये सुहाग की निशानी पहनना आवश्यक था। यदि किसी महिला की कलाई में काँच की चूड़ी मौल जाती थी तो वह लाल धागा तब भी बाँधती थी। गले का चर्यो मौल जाता था तो जब तक वह चर्यो नहीं पहनती थी तब तक थूक नहीं निगलती थी। पति के नहीं होने पर महिलाओं को काँच की चूड़ियों के बदले पीतल की चूड़ियां और चर्यो के बदले मूंग की माला पहननी होती थी। अन्य सुहाग सामग्री उनके लिए वर्जित थी। वे आरसी में अपना चेहरा भी नहीं देखती थी। ये वस्त्र मध्यकालीन थे, प्राचीन काल में दुल्हन भी धोती या झगुल पहनती थी क्योंकि उन दिनों पाँच-सात साल की उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी।
यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर बटुक के पीले वस्त्र, सिर पर शिखा, कानों में सोने की बाइ (बाली) कंधे पर झोला, झोले में धार्मिक पुस्तकें और हाथ में दंड, पैरों में खड़ाऊं होते थे। नवजात शिशु को नौं लुकुड़ (नए वस्त्र) नहीं पहनाते थे। गाँव में किसी छोटे बच्चे के पुराने कपड़े मांँग कर पहनाते थे। नामकरण के दिन जिस पीले वस्त्र पर नाम लिखकर नवजात को सुनाते थे, उसी कपड़े का पासिणी (अन्नप्राशन संस्कार) के दिन झगुल और टोपि बनाकर पहनाते थे। नामकरण के दिन से बच्चे को हाथ पैरों में धागुले, कमर में कंज्योड़ि, गले में ताबीज पहनाते थे।
ब्याहता महिलाओं का रंग्वाली पिछौड़ा, घाघरा (सनील, मगज के कपड़े के), पॉपलीन का बिलौज और रंगीन बुट्टों-फूलों वाली सूती धोती होती थी। पैरों में हवाई चप्पल या बिना चप्पल के। पुरुष लोग धोती- कुर्ता या कुर्ता-पैजामा,भोटी, सफेद टोपी, पैरों में कपड़े का जूता, लकड़ी के खड़ाऊं, सिर पर टांका बांधते थे।गौरतलब है कि चप्पल और जूतों को आमजन की पहुँच में आए हुए पचास-पचपन साल ही हुए हैं, परंतु धीरे-धीरे जिंदगी के लिए जरूरती वस्तुओं के अलावा फैशन की दस्तक भी शुरू हो चुकी थी। अलग-अलग अवसरों के लिए अलग-अलग वस्त्र एवं फैशन सामग्री जैसे फट्ट-फट्ट करने वाले चप्पल, हाइहील की सैंडिल, क्रीम-पौडर, लाली (लिपिस्टिक) नङपौलिस (नाखून पॉलिस) रोल्ड-गोल्ड के गहने, रीबन के स्थान पर नकली चोटी या जूड़ा, नथ की जगह पर बेसर (छोटी नथ) कानों के टॉप्स, डोरी वाला बटुवा का उदय होने लगा।
बकौल वरिष्ठ साहित्यकार, प्रबुद्ध मनीषी आदरणीय गिरीश चंद्र जोशी जी बताते हैं कि “तब ब्यौली के लिये कपड़े व जेवर, वर जी की पीठ में डालने (ओढ़ाने) का लाल/पीला पटका, ब्यौल पिटार के लाल वस्त्र की भी इधर-उधर से मांग कर व्यवस्था की जाती थी। और हां बर्यात के रास्ते में सौंले (टहनी/पत्ते) बिछाकर गुड़ पाने/खाने का भी अलौकिक आनन्द था।
इजा की घागरी हमारे ओढ़ने-बिछाने का प्रमुख उपादान हुआ करता था।” जिस मलेशिये के कपड़े से पूरे परिवार के बच्चों (लड़के_लड़कियों) के कपड़े बनते थे, वो गनेल के सींग बनता जा रहा था, उसकी जगह टैरीकॉट, पॉलिस्टर, काडराइ, रूबिया, सिल्क की रंगीन तितलियां मंडराने लगी। जिस प्रकार से धीरे-धीरे हमारे बोलचाल, रहन-सहन,शिक्षा, संस्कृति, लोक परंपराओं में परिवर्तन आ रहा था, ठीक इसी प्रकार हमारे वस्त्र और आभूषणों में भी बदलाव आता गया। ये परिवर्तन इतना तीव्रगामी है कि जो बचपन हमने जिया उसकी कहीं परछाई भी नजर नहीं आती। हमारे आमा-बढ़बाज्यू का दौर कैसा रहा होगा।
@कॉपी राइट
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