December 24, 2024

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परंपरागत पानी … तारा पाठक

तारा पाठक
उत्तराखंड

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यादों में बसा पहाड़ … परंपरागत पानी

पानी से ही जिंदगानी है।पानी की पर्याप्तता हो तो उसका मूल्य समझ में नहीं आता परंतु अभाव की स्थिति में हवा के पश्चात् पानी ही सर्वप्रथम आवश्यकता है।

बैशाख _जेठ के महिनों में भी लबालब भरा समुद्र लहरों की कुलांचें भरता है तो अपने गाँव के कुपोषण के शिकार मानिंद खाव_गाड़_गधेरों का स्मरण हो आता है। मन व्यथित होता है और एक टीस सी उठती है।

भौतिक बाध्यताओं को दर किनार कर मन पल भर में पहुंँच जाता है _खाली कंटर,बाल्टी और टीन वाला लीसे का गमला लेकर नौले की सीढ़ियों में।वहाँ हमसे पहले ही आमा, बड़बाज्यू ,छोटे _बड़े बच्चे पहले से विराजमान हैं जिन्हें अन्य दिनों में नाकारा ही माना जाता है लेकिन गर्मी की शुरूआत के साथ ही इन नाकाराओं का सीजन शुरू हो जाता है।पानी के पा्व (बारी _बारी से पानी भरना)जैसे _जैसे पीक पर पहुंँचते हैं, वैसे ही नाकाराओं का शेयर भाव बढ़ जाता है।ये टोकन का काम करते हैं।कुछ साल पहले तक जैसे गैस के सिलींडरों की लाइन में नाकारा प्राणी आधी रात से बिठा दिए जाते थे ऐसे ही पानी के पा्व के लिए भी आधी रात से लाइन लगती है।इन दिनों नौले के बगल की ओपन एयर क्रियशाला के भूत भी भाग जाते होंगे क्योंकि जिंदा मानव सबसे बड़ा भूत होता है।

बच्चों को सच का पाठ पढ़ाने वाले बड़बाज्यू भी पानी के पा्व में बिमांडी करते देखे हैं।आमा को द्याप्त घत्याने (पुकारने) में जरा भी हिचक नहीं होती।और हम जैसों का आखिरी अस्त्र होता _जोर_जोर से डाड़ मारना।जिसकी परिणति होती _महाभारत टाइप।

कम से कम दो महिनों तक नौले के तले को घस्स _घस्स करके घिसा जाता है। चंदन की भांति घिसे गए नौले के तले से जो पानी प्राप्त होता है ये गंगाजल की महत्ता पा जाता है। ये क्रम सदियों से चला आ रहा होगा क्योंकि पानी के यही श्रोत थे। नौले के तले तक दो _तीन इंच चौड़ी सात सीढ़ियां हैं। हम इन्हीं सीढ़ियों से नीचे उतर कर पानी भरते हैं। दिन भर सबके चरण रज लेपित सीढ़ियां (हम पैर धोकर नहीं उतरते हैं नौले में,हम में से कई एक तो बिना चप्पल के आते हैं।)भोर में आधे तक पानी से भर जाती हैं । सबसे पहले यानी दो _तीन बजे जो पहुँचता है उसके घर के हर प्रकार के बर्तन नौले में पानी के दिये माफिक भरे मिलते हैं और उनका चेहरा दप_दप दीप्त होता है।

धीरे-धीरे दिन चढ़ता है और देवदार की घनी छाँव में अजगर की भांति वो लोग पसर जाते हैं जिनका नंबर दस_बारह के बाद है।रतजगा करने वाले बड़े गर्व के साथ अपने भरे बर्तन उठाते हुए एक मारक नजर इन पर फेंक कर चल देते हैं।

अपने लिए तो जैसे _तैसे पानी नौले से हो जाता है,साफ_सफाई और ढोर _डंगरों के लिए एक दो किलोमीटर रोज का चक्कर शुरू हो गया है। चाँद पर पानी की खोज जितना ही कठिन हो गया है खाव_गधेरों में पानी खोजना।

आसपास कुछ श्रोत और भी हैं जैसे _अंडौइ,चुपटौइ (इसमें मात्र एक बाल्टी पानी हो पाता है)। नानि नौइ (छोटा नौला) जितै कानइ,डिणा नौव।यहाँ दो चार दिन में ही पानी समाप्त हो जाता है।यहाँ पर जानवरों के पीने तक ही सीमित रहता है।यदि लगातार यहाँ से पानी भरा जाए तो फिर जानवरों के लिए आसपास कहीं भी कोई श्रोत नहीं है इसलिए सभी लोग यहाँ से केवल जानवरों के पीने की आपूर्ति करते हैं।

बड़े लोग तो नहा _धोकर पूजा पाठ करते हैं, इसलिए उनका नित्य कर्म में स्नान सर्वोपरि है लेकिन हमारा कोई स्थिर नियम-कानून नहीं होने एवं पानी की अल्पता के कारण हम कभी_कभी ही नहाते हैं।नित्य मृदा स्नान के चलते हमारे शरीर में मैल की परत भी बहुत जल्दी चढ़ती है। अब ईजा कहती है _भोल घिना वाल धार पर जूंल ,वां तुम सब नै ल्हेला और मैं लुकुड़ ध्वे ल्ह्यूंल(कल को घिना वाले धारे पर जाएंगे वहाँ तुम सब नहा लोगे और मैं कपड़े धो लुंगी)।घिना का धारा सदा नीरा माना जाता है।वहाँ ईजा ने धुले कपड़े सुखाने डाल दिए हैं ,हम नहा _धोकर ऐसे चमक रहे हैं जैसे सोनार पुराने जेवरों पर सोने का पानी चढ़ा देता है। वैसे भी आजकल पानी सोने से ज्यादा कीमती प्रतीत हो रहा है।

हम बच्चों के सिर पर सामर्थ्य के अनुसार सूखे कपड़ों की गठरी और ईजा के सिर पर पानी भरी गगरी है।अब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई शुरू हो गई है ,उन दिनों एवरेस्ट के बारे में सुना नहीं था लेकिन, आत्मा की अनुभूति वैसी ही थी।

चाहे पानी को लेकर कितनी तू_तू, मैं _मैं हो जाए, गालियां भी चलती हैं। बहुत जोश में सामने वाला है तो आपके भरे बर्तन को पलट देगा लेकिन गाँव की अनूठी परंपरा है कि कोई किसी को क्षति नहीं पहुँचाता है।घिना से पानी सारते _सारते ईजा लोग जब बेहाल हो जाते हैं तब याद आते हैं गंगाधर यानि भगवान भोलेनाथ ।और गांव भर से तृषितजनों की टोली शुरू करती है उनका जलाभिषेक, जिनकी जटाओं से स्वयं माँ गंगा उतरती हैं धरा पर।

आमा की नजर अब आसमान में तैरते बौणा को खोज रही हैं। बकौल आमा_अगास में बौणा थिरं त द्यो हुं (आसमान में बाज की तरह का एक पक्षी यदि अपने डैनों को स्थिर कर कुछ देर के लिए एक स्थान पर टिका रहे तो वर्षा होती है)। कितने दिनों से रात को बाबू आकाश में चाँद को तक रहे हैं कब चाँद का घेरा बड़ा होगा,कब वर्षा होगी।पहाड़ों में ये धारणा है कि_चाँद के बाहर वृत्ताकार धुंध चाँद के जितने निकट होगी, बारिश के आसार उतने कम और धुंध का घेरा जितना फैला होगा , बारिश उतनी जल्दी होगी।ऐसे में हिरदा भी अपना लोक ज्ञान साझा करते हैं कि _झाड़ _पात बिड़ि जास मेड़ी जानी त जरूरै बर्ख हैं (यदि झाड़ या घास के पत्ते बीड़ी की तरह गोल मुड़ जाएं तो निश्चित ही बर्षा होती है।इधर दो _एक दिन से गौरैया भी अपने डैने फड़फड़ा कर मिट्टी में लोट _पोट हो रही है जिसका सीधा अर्थ लगाया जाता है कि अब वर्षा का होना निश्चित है। कई पक्षी अपना अंडा घौंसले से नीचे गिरा देते हैं जिसे- द्यो कें चड़ै है कहते हैं(वर्षा को अर्पित कर दिया कहते हैं)।

कुछ आशावादी दृष्टिकोण,कुछ मजबूरी के एहसास के चलते प्रतिवर्ष ऐसे ही गीष्म ऋतु में जल संकट से जूझता समाज कभी भी हारता नहीं है वरन् हम जैसी बेसब्र नई पीढ़ी को लोक कथा के जरिए पराशित्त (पाप)का भय एवं जीव दया का पाठ भी पढ़ाते हैं।
पहाड़ों में द्यो कक्का पाणि वाली चातक की लोककथा प्रतिवर्ष ग्रीष्म ऋतु में लोक में गुंजित रहती है। जो कि इस प्रकार है।

एक बार एक किसान ने अपने बैल को गेहूं की दैं माणने में लगाया (अनाज की बालियों के ढेर में बैल गोल_गोल घूमता है, उसके खुरों की रगड़ से अनाज का बाहरी आवरण उतर जाता है जिसे दैं माणना कहते हैं)। दैं माणने के उपरांत उसने अपने बेटे से कहा_बैल को पानी पिला कर ले आ।
तपती दोपहर में लड़का बैल को लेकर निकला लेकिन कुछ ही दूर जाकर वो हांफने लगा। सामने एक पेड़ की छाया में जा बैठा। वह मन ही मन सोच रहा था कि इतनी दूर बैल को पानी पिलाने कैसे ले जाऊं‌। अगर वापस घर लौट जाऊंगा तो बाबू मारेंगे जरूर।कुछ देर यूं ही जाऊं न जाऊं के झूले में झूलता रहा, अचानक उसके दिमाग में एक योजना घूमी और वो आराम से पेड़ के नीचे सो गया। घर लौटने का अनुमानित समय हुआ, उसने बैल के खुरों को मूत्र से गीला किया और वापस घर लौट आया। गीले खुर पानी पीने की निशान थे लेकिन बैल था प्यासा ही। सुबह से धूप में गोल-गोल घूमना ऊपर से तीव्र प्यास के कारण बैल मृत्यु को प्राप्त हो गया।

घर के लोग बैल की मौत को सुबह से धूप में घूमना मान रहे थे और बहुत दुःखी थे। मौत का सच लड़के से अब बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था, आत्मग्लानि से उसके भी प्राण-पखेरू उड़ गए।

लोक मान्यता है कि बैल को मारने के पराशित्त से वही लड़का अगले जनम में पक्षी (चातक) बन गया। ऐसी ही भीषण गर्मी में एक चिड़िया आज भी पहाड़ों में तड़पते स्वर में गाती सुनाई देती है _द्यो (बारिश) कक्का पाणि-पाणि।

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