भगवद चिन्तन … तृष्णा
जिस तरह मुट्ठी में भरी रेत धीरे-धीरे सरक जाती है, ठीक उसी तरह समय भी हमारे हाथों से धीरे-धीरे सरकता जाता है। यहाँ प्रत्येक वस्तु, पदार्थ और व्यक्ति सभी को एक न एक दिन जीर्ण-शीर्ण अवस्था को प्राप्त करना है। जरा किसी को भी नहीं छोड़ती।
‘तृष्णैका तरुणायते’ लेकिन, तृष्णा कभी वृद्धा नहीं होती है। वह सदैव जवान बनी रहती है और न ही मानव मन से इसका कभी नाश होता है। घर बन जाये यह आवश्यकता है, अच्छा घर बने यह इच्छा है और एक से क्या होगा? दो-तीन घर होने चाहियें , बस इसी का नाम तृष्णा है।
विवेकवान बनो, विचारवान बनो और सावधान हो जाओ। खुद से न मिटे तृष्णा तो कृष्णा से प्रार्थना करो। कृष्णा का आश्रय ही तृष्णा को मिटा सकता है। जिस जीवन में प्रभु को स्थान नहीं होता, फिर वही जीवन तृष्णा से ग्रसित भी हो जाता है।
ख्वाव देखे इस कदर मैंने।
पूरे होते तो कहाँ तक होते।।
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