भगवद् चिंतन …. शुभ पूर्णिमा
वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को भगवान श्रीविष्णु के दो अवतारों का प्राकट्य हुआ है। एक हैं भगवान कूर्म और एक हैं भगवान बुद्ध।भगवान का जब भी अवतरण होता है, किसी विशेष प्रयोजनार्थ ही होता है।
समुद्र मंथन के समय देवताओं के कार्य को साधने के लिए भगवान श्री विष्णु ने कूर्मावतार अथवा कछुए के रूप में अवतार धारण किया और समुद्र में डूबते हुए मंदराचल पर्वत का भार अपने पीठ पर धारण करके देवताओं का कार्य सिद्ध किया।
तो युवराज सिद्धार्थ ने भी सभी तरह के विषय भोगों का त्याग कर जन कल्याण के लिए अपने संपूर्ण ऐश्वर्यों और राजसी सुखों को अपनी कठोर तपोग्नि में स्वाह करके आत्मज्ञान प्राप्त कर ‘अप्प दीपो भव’ का उद्घोष जन-जन तक पहुँचाकर उनके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया।
बुद्ध सरल थे मगर बुद्ध बनने का मार्ग कदापि सरल नहीं था। युवराज सिद्धार्थ और भगवान बुद्ध बनने के बीच पुत्र मोह का त्याग, पत्नी मोह का त्याग, राजसी ठाठ-बाटों का त्याग, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर जैसे आंतरिक विकारों के संपूर्ण त्याग के साथ-साथ स्वयं के अस्तित्व का त्याग जैसी अनेक कसौटियां, चुनौतियां और बाधाएं थी। कार्य आसान नहीं था तो असंभव भी नहीं और सभी चुनौतियों को पार करते हुए, सभी कसौटियों पर खरे उतरते हुए और सभी बाधाओं का डटकर मुकाबला करते हुए युवराज सिद्धार्थ ही भगवान बुद्ध के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
भगवान बुद्ध ने कहा कि संसार अनित्य और प्रति क्षण क्षीण होने वाला है। जिस दिन इतनी सी बात हमारे मन मस्तिष्क में अच्छे से बैठ जायेगी, उसी क्षण हमारी उस शाश्वत प्रभु की तरफ यात्रा प्रारंभ हो जायेगी। उस दिन नर को नारायण रूप अथवा सिद्धार्थ को बुद्ध बनने में देर नहीं लगेगी।
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