प्रतिभा की कलम से …
चौदह किलोमीटर का सफर पैदल तय करते-करते जब पांव थक गए तो थोड़ा सुस्ताने को आंखें जरा मूंदी ही थी कि इतने में एक आदमी घबराया हुआ सा मेरे पास आया। कहने लगा- मेरी जेब किसी ने काट ली है। अब घर वापस जाने को पैसे नहीं है। क्या आप मेरी कुछ मदद कर सकती हैं? उस आदमी के साथ एक छोटी बच्ची भी थी।
मेरे समीप ही हमारे एक सहयात्री भी उनकी बात सुन रहे थे। व्यक्ति की बदहवासी उसकी बात की पुष्टि करती सी प्रतीत होती थी। इसलिए मैंने पूछ लिया- कितने पैसे में काम चल जायेगा? साथ खड़े पुरूष ने मुझे इशारा किया कि मत आइये इसकी बातों में। यात्रियों को इस तरह ठगने वाले यहां पहले से तैयार बैठे रहते हैं।
बात वैष्णो देवी की हो रही है, जब लगभग एक दशक पहले हम सपरिवार वहां की यात्रा पर थे। लेकिन, मुझे तो ये सोचना था कि यदि वास्तव में इनकी जेब कट गई होगी तो ये घर किस तरह पहुंचेंगे? मैंने अपना पर्स खोला और जितने मुट्ठी में आ सके उतने रूपए उस आदमी के हाथ में रख दिए। अब मेरे साथ खड़े भाई साहब भी थोड़ा पसीज गए और लगभग दो सौ रूपये उन्होंने भी उस आदमी को दे दिए। उस व्यक्ति को संयत देखने के बाद हमने फ़िर कदम बढ़ाए, माता के दर्शनों के अंतिम पड़ाव की ओर।
दर्शन इत्यादि ठीक से हो जाने के बाद प्रभु के धन्यवाद स्वरूप दानपात्र में भी कुछ चढ़ाना भी तो था। दान स्त्रियों के हाथ से ही अधिक उचित समझा जाता हो शायद इसलिए पतिदेव ने मुझे इशारा किया। सो इस बार भी मैंने अपने पर्स में हाथ डाला और जो हाथ आया वो दानपात्र में डाल दिया।
वापसी में जब हम कटरा से चंडीगढ़ पहुंचे तो आधी रात हो चुकी थी। टैक्सी ड्राइवर ने कहा कि आपके साथ बुजुर्ग माताजी और छोटा बच्चा भी है इसलिए यदि आप चाहें तो कुछ और पैसे लेकर हम आपको आपके घर देहरादून भी छोड़ देंगे। बात तो वह सही कह रहा था मगर इसमें हमसे ज़्यादा उसका अपना फ़ायदा था। आधी रात में कोई और वाहन तलाश करने पर हमें दिक्कत तो होनी ही थी इस बात का फ़ायदा उठाकर वह लगभग दुगना किराया वसूल कर हमें देहरादून पहुंचाने की बात कर रहा था।
पतिदेव इस बात के लिए भी राज़ी हो गए। लेकिन, मुझे पता नहीं क्या हो गया उस वक्त! थोड़ा जोर से झल्लाते हुए मैंने कहा- ‘पैसे ख़र्च करने से पहले कभी तो थोड़ा सोच लिया करो। चार घंटे का ही तो सफ़र है अब। हम बस से चले जायेंगे, टैक्सी से नहीं’। इतना कह, मैं पैर पटकती आगे बढ़ गई।
टैक्सी का बिल चुकाकर ये भी पीछे-पीछे आ गये। बेटे को गोद में लिए मैं एक बेंच पर इत्मीनान से बैठ गई। ये बस का पता करने गये। दस मिनट बाद वापस आये तो गुस्से में कहते हैं- हमारे आने के पाँच मिनट पहले ही आज़ की आखिरी वाल्वो भी निकल गई। अब सुबह तक इंतज़ार करो अगली बस का।
मैंने कहा- वाल्वो में नहीं तो किसी दूसरी बस में चले जायेंगे। ‘कहो तो टैक्सी वाले को बुला लूं? ज्यादा दूर नहीं गया होगा’, सुविधाजनक तरीके से घर पहुंचने के लिए उन्होंने एक बार फिर कोशिश की मेरी राय लेने की। मैं काँप गई। नहीं .. नहीं । जाने दीजिए उसे।
सास और पति दोनों हैरान हो गुस्से में मुझे घूर रहे हैं। मैं न अपमानित हुई और न दु:खी। सिर झुकाये चुपचाप एक तुलनात्मक आंनद लेते हुए सोच रही हूं कि यदि मंदिर के पास मिला वो जेबकटा व्यक्ति किसी तरह अपने घर पंहुच गया होगा तो हम भी इस तरह अपने घर पंहुच ही जायेंगे। थोड़ी देर बाद मुझे कॉफी का एक गिलास थमाकर ये फिर उसी तरफ चले गये । मैं दो घूंट भी न पी सकी थी कि ये भागते हुए आये। ‘चलो, चलो वाल्वो आ गयी’।
वाल्वो? लेकिन आखिरी बस तो जा चुकी थी। फिर ये कहां से आ गई?
सुना तो था कि वैष्णो देवी में चमत्कार होते हैं। मगर यह तो चंडीगढ़ है। यहां इस चमत्कार क्या तुक है? खैर कॉफी वहीं छोड़ हम झटपट बस में बैठ गये। दस पंद्रह मिनट बाद बस चल पड़ी। अब माँजी और ये इत्मीनान से नींद की झपकी ले रहे हैं। और मैं ईश्वर को धन्यवाद दे रही हूं कि तूने मेरी लाज रख ली।
मुझे डर था कि हम घर तक का सफर अगर टैक्सी से ही तय करते हैं तो बिल चुकाने के लिए निश्चित रूप से मुझे ही अपने पर्स में हाथ डालना ही पड़ेगा क्योंकि जेबकतरों के भय से कुछ और धनराशि तो इन्होंने मेरे पास ही दे रखी थी। और ये तो मैं और ईश्वर ही जानते थे कि पर्स अब बिल्कुल खाली था।
प्रभु क्या तुम्हें पता है कि दानपात्र में मैंने सिर्फ पाँच रूपये डाले थे? क्योंकि सारे पैसे उस व्यक्ति को देने के बाद मेरे पास वही शेष बचा था।
इतने बरस बाद अब समझ में आता है कि असल में उस जरूरतमंद की मदद को ही ईश्वर ने चढ़ावे के रूप में स्वीकार किया था और मैं कमअक्ल तब यह सोच-सोच कर अचंभित होती रही कि देखो पांच रुपए के बदले में माता रानी ने इतनी बड़ी वाल्वो मेरे लिए भेज दी।
#जयमातादी
#वैष्णोदेवी
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