धर्मेन्द्र उनियाल धर्मी
अल्मोड़ा, उत्तराखंड
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(पहाड़ पलायन पर व्यंग्यात्मक रचना)
पहाड़ छोडि क दिल्ली जाणा छन,
होटलू मा भांडा मजांणा छन।
तन त कूई काम छोटू-बडू नी होंदू,
पर स्यू सुदी की शेखी दिखाणा छन।
मां की धोती पर थेगली लगी छन,
बेटा नई नई जींस झलकाणा छन।
लोन मा नयू फोन नई स्कूटी ली तैं,
कपाली मा अपणी क़र्ज़ चढाणा छन।
सड़क्यों मा बुलट ,चलोण लंग्या बेटा,
पिताजी पुंगणों पुंगणों हळ चलाणा छन।
पचास गज मा किराया कू फ्लैट ली तै,
अफ्फू तै स्यू बल अमीर चिताणा छन।
ब्यौ बराती मा अलग ही देख्येण लग्यां स्यू
जूता सिमित पंगत मा घुस जाणा छन।
भाई भयात त, छोडि याली स्यून अब पर
बस वोट देण तैं ही स्यू अब गौं आणा छन।
देवी देवतों की त स्यू बिसरी गैन जात्रा,
मसाण पूजणा ,घडयालू लगवाणा छन।
मैन त कै कू भी नऊ नी लीनी भैजी,
त तुम पर किलै सुदि कांडा बिणाणा छन?
अब त लौटी तैं , गौं ए जावा मेरा लाटों,
तिबारियों का खम्भा धिवाडा खाणा छन।
हमारी हिकमत भी अब जबाब दी गी बेटा,
बुढ्या बई बुबा पोस्टमेन मन चिट्ठी लिखाणा छन।
बुढ्या बई बुबा पोस्टमेन मन चिट्ठी लिखाणा छन।
बुढ्या बई बुबा पोस्टमेन मन चिट्ठी लिखाणा छन।
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