-श्री काशी विश्वनाथ के मूल मंदिर को 1194 में मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुड़वाया था। मंदिर को 14वीं सदी में हुसैन शाह शर्की ने ध्वस्त करा दिया।
मूल विश्वनाथ मंदिर को 1194 में मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुड़वाया था। 14वीं सदी में हुसैन शाह शर्की ने मंदिर ध्वस्त करा दिया था। विश्वनाथ मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण 1780 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था और प्रदेश सरकार 1983 से इसका प्रबंधन कर रही है।
काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार के मुखिया डॉ कुलपति तिवारी के मुताबिक 1669 में औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर का एक हिस्सा तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई। इसके पहले 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तान ने मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण कराया था। इसके बाद मुगल बादशाह अकबर ने 1585 में विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल ने पं. नारायण भट्ट के सहयोग से मंदिर में पन्ने का शिवलिंग स्थापित कराया था। शिवलिंग का ऊपरी हिस्सा औरंगजेब के आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त हो गया। शिवलिंग को बचाने के लिए महंत परिवार के मुखिया शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कूप में कूद गए थे। अहिल्याबाई होल्कर के मंदिर का पुनर्निर्माण कराने के बाद 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत ने सोना दान किया, जिससे मंदिर के शिखर को स्वर्णमंडित कराया गया।
ज्ञानवापी मस्जिद में तहखाने नहीं, मंडप हैं …
पूर्व महंत डॉ कुलपति तिवारी ने बताया कि ज्ञानवापी मस्जिद सर्वे की कार्यवाही के दौरान जिसको तहखाना कहा जा रहा है, वह असल में प्राचीन मंदिर का मंडप है। इसमें एक ज्ञान मंडप, दूसरा शृंगार मंडप, तीसरा ऐश्वर्य मंडप और चौथा मुक्ति मंडप के नाम से विख्यात था।
अविमुक्तेश्वर से विश्वेश्वर और विश्वेश्वर से विश्वनाथ
शंकर की नगरी में श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण व ध्वंस की यात्रा भी समानांतर है। अविमुक्तेश्वर से विश्वेश्वर और विश्वेश्वर से विश्वनाथ का उल्लेख पुराणों में मिलता है। आदिविश्वेश्वर शिव का काशी में अविमुक्तेश्वर के नाम से ही वास था, जो लोक में विश्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण और काशीखंड में भी अविमुक्तेश्वर को आदिलिंग माना गया है।
सबसे पहले अविमुक्तेश्वर शिव की थी प्रधानता
काशीखंड के अनुसार प्राचीन साहित्य व अभिलेखों के अनुसार सबसे पहले अविमुक्तेश्वर शिव की प्रधानता थी, समय बदलने के साथ मुगल युग के पहले ही इनका नाम विश्वेश्वर हो गया। केंद्रीय ब्राह्मण महासभा के प्रदेश अध्यक्ष अजय शर्मा ने बताया कि तीर्थ चिंतामणि के पृष्ठ संख्या 360 में कहा गया है कि अविमुक्तेश्वर ही लोक में विश्वनाथ हो गए। 13वीं शताब्दी के आसपास से ही विश्वनाथ जी का वर्णन आरंभ हुआ है।
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