वीरेंद्र डंगवाल “पार्थ”
देहरादून, उत्तराखंड
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उत्तराखंड में बच्चों का लोकपर्व फूलदेई/फुल्यारी एक महीने कुसुम परिमल बिखेरने के बाद आज पूर्णिमा को सम्पन्न हो रहा है। बच्चों का यह अनूठा पर्व उल्लासित और आनंदित करने वाला होता है। शहर में भले ही इसका उल्लास न दिखे। लेकिन, गांव के बच्चों के लिए फूलदेई की पूर्णता का दिन तो महापर्व जैसा होता था। हालांकि, समय के साथ गांव में भी काफी बदलाव हो गया है।
फूलदेई/फुल्यारी का यह पर्व संपूर्ण उत्तराखंड में मनाया जाता है। हालांकि, नाम में थोड़ा भिन्नता हो जाती है और मनाने के तरीके में भी शायद। मीडिया/सोशल मीडिया में भी पर्व को लेकर बहुत से लोग जानकारी देते हैं। लेकिन, वह भ्रमित करने वाली सी प्रतीत होती है। मैं इसे गलत भी नहीं मानता … हो सकता है लिखने वाले के क्षेत्र में यह पर्व उसी रूप में मनाया जाता हो। पत्रकारिता में भी उसी तरह की जानकारी होती है। शायद पत्रकार को स्थानीयता या पर्व की जानकारी न हो, उसे मात्र अपनी ड्यूटी बजाने के लिए लिखना हो। खैर …
मैं फूलदेई/फुल्यारी को उस रूप में बता रहा हूं जिस रूप में मैंने इसे मनाया, इसे जिया और इसकी महत्ता को समझा। विदित है कि किसी भी सनातन पर्व मानने के कुछ नियम होते हैं, एक अनुशासन होता है। फुलदेई/फुल्यारी पर्व के भी कुछ नियम व अनुशासन है, जिनका पालन करते हुए बच्चे उल्लास के साथ इस पर्व को जीते हैं।
उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में फूलदेई/फुल्यारी का पर्व पूरे एक महीने तक चलता है/मनाया जाता है। चैत (चैत्र) की संक्रांति (महीने की शुरुआत) से शुरू होकर बैशाख की संक्रांति को पूर्ण होता है। फूलदेई/फुल्यारी के पर्व में बच्चे फूल लाकर अपने पूरे घर को फूलों से सजाते है। देहरी, मोरी (खिड़की), सीढ़ी यानी सभी जगह फूल रखे/डाले जाते हैं। लेकिन, पर्व की एक विशेष बात यह है कि फूल डालने का एक क्रम यानी अनुशासन तय होता है। उसी के अनुसार फूल डाले जाते हैं। ऐसा नहीं होता कि कभी भी किसी भी समय फूल तोड़ो और डाल दो।
शुरुआती सात दिनों में फ्यूंली के फूल
फूलदेई/फुल्यारी पर्व शुरू होने के पहले सात दिन सुबह ही फूल तोड़ने होते हैं और सुबह की डालने होते हैं। इसमें बाध्यता यह होती है फूल सूरज निकालने से पहले तोड़ने हैं और सूरज निकलने से पहले ही घरों में डालने भी हैं। सूरज निकलने के बाद फूल जूठे (छुए हुए) माने जाएंगे यानी सूरज निकलने के बाद न फूल तोड़ सकते है न ही घरों में डाले सकते हैं। इन शुरुआती सात दिनों में फ्यूंली के फूल डालने की परंपरा रही है। जहां फ्यूंली की उपलब्धता न हो वहां लाई (सरसों) के फूल डालते थे। हम लोग सुबह 4 बजे फूल लेने खेतों में चले जाते थे टॉर्च लेकर। गेंहू और जौ की फसल से भरे पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेतों की मुंडेर पर फ्यूंली के फूल खिले रहते हैं। ओस से हमारे पूरे कपड़े भीग जाते थे। हल्का उजाला होते ही घरों की तरफ भागते थे कि कहीं सूरज न आ जाए और हमारे फूल जूठे न हो जाएं। सूरज निकलने से पहले फूल डालकर विजेता का अनुभव होता था। मानो भास्कर को कहते हों कि तुम बहुत देर में उठते हो, देखो हमने अब तक फूलों से घर भी सजा दिया है। सात दिन फूल डालने का यही क्रम चलता।
आठवें दिन बदल जाता है फूल तोड़ने का समय
फूलदेई/फुल्यारी के आठवें दिन फूल तोड़ने का समय बदल जाता है। आठवें दिन से शाम तो फूल तोड़े जाते हैं और सुबह घरों में डाले जाते हैं। यहां भी भास्कर से लुकाछिपी जारी रहती है। अब बाध्यता यह है कि फूल सूरज छिपने के बाद ही तोड़े जा सकते हैं। सुबह का क्रम वही रहेगा यानी सूरज निकलने से पहले फूल डालने हैं। फूलदेई/फुल्यारी के ये वाले दिन बच्चों की अधिक मस्ती के होते हैं। क्योंकि फूलदेई के बहाने खेलने का खूब समय मिल जाता था। स्कूल से आकर फूलदेई (फूल तोड़ने) के बहाने बच्चे घर से निकलते हैं और खूब खेलते हैं। क्यूंकि, सूरज के छिपने तक फूल नहीं तोड़ सकते। इसलिए बच्चे खेलने में मस्त रहते। खेल छोड़कर कुछ बच्चे फूल तोड़ने लगें तो और बच्छे उन्हें डराते हैं कि अभी तो स्वीली घाम (बच्चा जनने के बाद मृत महिलाओं के लिए धूप) है वो देखो पहाड़ की चोटी पर घाम (धूप)। स्वीली घाम के बहाने खेल का समय थोडा और बढ़ जाता।
पहाड़ की चोटी पर स्वीली घाम
पहाड़ में मान्यता है कि दिन के अंत पर जब सूरज का सफर पूरा होता है तो आखिर में जो धूप पहाड़ की चोटी पर होती है। वह धूप उन महिलाओं के लिए होती है जिनकी गर्भावस्था में या बच्चा पैदा होने के बाद मृत्यु हो जाती है। दिन के अंत पर पहाड़ की चोटी पर पसरी उस धूप को गढ़वाल में स्वीली घाम (गर्भवती की धूप) कहते हैं।
‘चल फुल्यारी फूलुक जुनखी-मुनखी धूलूक’
अंधेरे में फूल तोड़ने के बाद बच्चे फूलदेई/फुल्यारी पर आधारित गीत ‘चल फुल्यारी फूलुक जुनखी-मुनखी धूलूक’ आदि गाते हुए मस्ती में रात साढ़े आठ -नौ बजे तक घर पहुंचते थे। क्योंकि पर्व है इसलिए देर में आने पर कोई डांट भी नहीं पड़ती। गर्मियों के दिन होते हैं, ऐसे में रात को सोने से पहले फूलों पर हल्का सा पानी का छिड़काव कर देते हैं ताकि फूल सुबह तक मुरझा न जाएं।
फूलदेई/फुल्यारी के समापन का दिन बच्चों के लिए महापर्व
महीना पूरा होने पर अब आता है फूलदेई/फुल्यारी के समापन का दिन। यह दिन बच्चों के लिए महापर्व सा होता था। आज बच्चे टेंशन फ्री क्योंकि आज सूरज से लुकाछिपी नहीं होगी बल्कि सूरज के साथ-साथ कदम-कदम मिलाकर बच्चे चलेंगे यानी आज फूल जूठे होने का डर नहीं होता। क्योंकि आज सूरज उगने के बाद ही फूल तोड़े/लाए जाएंगे। बच्चे फूल लेने चले जाएंगे और घर की महिलाएं पकवान बनाने में जुट जाएंगी।
आखिरी के दिन इकट्ठा कर लेते थे 140 किस्म के फूल
आज का दिन विशेष इसलिए भी होता है कि बच्चे आज अधिक से अधिक किस्म के फूल इकट्ठा करेंगे। इसके लिए उन्हें खूब मशक्कत करनी पड़ती है। विभिन्न तरह के पकवान पापड़ी, स्वांले व उड़द के पकोड़े आदि बनेंगे और इससे भी विशेष यह कि आज बच्चों को महीनेभर की मेहनत का मेहनताना यानी दक्षिणा भी मिलेगी। मुझे याद है हम आखिरी के दिन 140 किस्म तक के फूल इकट्ठा कर लेते थे। इसमें दिन के 12 तक बज जाते थे। एक-एक फूल के लिए खूब मारामारी होती थी। यदि किसी किस्म का केवल एक ही फूल मिला तो फिर उसके हिस्से होते थे। जिस बच्चे को वो फूल मिला वह एक-एक पंखुड़ी सबको देगा ताकि सभी के फूलों की किस्म की संख्या बढ़ जाय।
घर के मुख्य द्वार पर तिलक लगाकर स्वागत
फूलदेई/फुल्यारी की समापन की रस्म भी बड़ी प्यारी होती है। सब बच्चे विभिन्न किस्मों के फूल लेकर जब घर पहुंचेंगे तो घर के मुख्य द्वार पर तिलक लगाकर उनका स्वागत किया जाता है। उसके बाद घर की मुख्य देहरी पर फूल डालकर बच्चा प्रवेश करेगा। मुख्य देहरी पर ही बच्चा सात बार अंदर/बाहर कर फूल डालेगा। प्रत्येक राउंड पर उसे दक्षिणा (रुपया व पकवान) मिलेगा। आज के बच्चों के लिए इस रुपए और पकवान का भले ही महत्त्व न हो। लेकिन, उस दौर में रुपए का भी महत्व था और उस पकवान का भी। बच्चे दिन से लेकर शाम तक उन पकवानों को थोड़ा-थोड़ा करके खाते रहते थे।
और इस तरह पूरे एक महीने तक बच्चों के उल्लास का यह फूलदेई/फुल्यारी का पर्व सम्पन्न होता है।
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