डा. विद्यासागर कापड़ी
देहरादून, उत्तराखंड

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सागर की कुण्डलियाँ
थामो मेरा हाथ
( १ )
सावन के झूले पड़े,
ओ प्राणों के नाथ।
आओ झूलें साथ में,
थामो मेरा हाथ।।
थामो मेरा हाथ,
मुदित होकर झूलेंगे।
गायेंगे मल्हार,
विरह के दिन भूलेंगे।।
कह सागर कविराय,
तार छेड़ो रे मन के।
भरें जगत का मोद,
दिवस अबके सावन के।।
( २ )
बनवारी कर दो दया,
हो दीनन के नाथ।
खाई अगणित ठोकरें,
थामो मेरा हाथ।।
थामो मेरा हाथ,
सहारा तेरा ही है।
मुझे पता है श्याम,
सदा तू मेरा ही है।।
कह सागर कविराय,
सुनो रे गिरिवर धारी।
डूब न जाये नाव,
बचाले ओ बनवारी।।
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सागर के दोहे
साँसों की माला
(१)
साँसों की माला भरी,
भरी हृदय में चाल।
दी सुधि दाता भोर में,
नमन तुझे प्रतिपाल।।
(२)
तू बिसराता है कहाँ,
मैं जाता हूँ भूल।
मेरे पथ के शैल को,
करता है तू धूल।।
(३)
अपना था देखा नहीं,
पर को अपना मान।
पल-पल जो था साथ में,
किया न उसका गान।।
(४)
तूने अपना मानकर,
थामी मोहन डोर।
सुधि भरता है भाल में,
देकर नूतन भोर।।
©️डा. विद्यासागर कापड़ी


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