जीके पिपिल
देहरादून

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गज़ल
चार आदमियों की ज़मात को कारवां समझ बैठा
धुंआ के उठते गुब्बार को भी आसमां समझ बैठा
चिराग़ बुझा तो था तेल या बाती के ख़त्म होने से
और मामूली सा झोंका ख़ुद को तूफां समझ बैठा
एक एहसान का कर्ज़ चुकाया जो उससे हार गया
वो हराकर हमें ख़ुद को तीस मार खां समझ बैठा
फांसी के वक़्त उससे आखिरी ख्वाइश क्या पूछी
क़ातिल ज़ल्लाद को ख़ुद का मेहरबां समझ बैठा
ख़ुदा ही खिलाता और संवारता है सभी फूलों को
और इंसान ख़ुद को चमन का बागबां समझ बैठा
ये दुनियां एक सराय है और हम सब मुसाफ़िर हैं
नादान है वो इंसा जो सराय को मकां समझ बैठा
जीके पिपिल
देहरादून।
27082025


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