तारा पाठक
हल्द्वानी, उत्तराखंड
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यादों में बसा पहाड़
टूटती जुड़ती – पुन: आगे बढ़ती बेटियांँ
कितना बदल गया नहीं? पूरा उलट गया समाज हमारे देखा-देखी। कभी बेटी के जनम का समाचार किसी शोक समाचार से कम नहीं होता था।पहली बेटी के जनम पर सांत्वना वाला मलहम लगाया जाता था-
“के बात नैं दुसर बारि भौ है जाल (परेशान मत होइए, अगला बेटा हो जाएगा)। “दूसरी बेटी हो गई, तीसरी बेटी हो गई तो माँ-बच्चियों की ज़िंदगी नरक से कम नहीं होती थी। बेटी के जनम की खबर जिसे भी लगती उसके होंठों पर पहला वाक्य होता था- “दऽऽऽचिहड़ि है रै.(ओह लड़की हुई है)। “गाँव भर के लोग ऐसे खेद प्रकट करते थे, जैसे इन्हीं पर बेटी का भार आ पड़ा हो। जिस बच्ची के बाद बेटे का जनम हो जाता था, उसे शकुनी कहते थे। उसकी पीठ में गुड़ की भेली फोड़ते थे।
बेटी और बेटे की परवरिश में भेदभाव-
जन्म लेने के दिन से ही बेटी को हिकारत भरी नजरों से देखा जाता था। उसकी मालिश करने को घर में तेल नहीं होता था, जबकि बेटे के लिए गाय का घी। घर में न हो तो पड़ोस से पैंच लेकर भी आ जाता था। बेटे की दिन में दो बार मालिश की जाती थी।घर में काजल बनाया जाता था।
बेटी के पीने के दूध की कोई चिंता नहीं होती थी, जब तक माँ का दूध हुआ तब तक ठीक, बाद में चावल का मान पिलाया जाता था। बेटे के लिए दूध की कमी होने पर दुधारू गाय खरीद ली जाती थी। बेटे को भैंस के दूध से भी परहेज़ कराया जाता था, क्योंकि भैंस का दूध गाय के दूध जैसा गुणकारी नहीं माना जाता था। बेटा जनने वाली भाग्यशाली माँ के लिए भी दूध हो जाता था।
बेटे की जननी के लिए पंजीरी बनाई जाती थी। उबला पानी पीने को दिया जाता था। सास भी बहुओं में दुहरा व्यवहार (बेटे वाली-बेटी वाली) करती थी। जिस बहू के बेटे ही बेटे होते थे, उसकी तारीफ में सास के ये शब्द होते थे-
“जदिन बटी त ऐ रै, पूड़ जै बादी ऐ (जिस दिन से ये आई मधुमक्खी का जैसा छत्ता बनता आया)। “जिन खाद्य पदार्थों से मांँ के दूध में वृद्धि होती है वह भोजन बेटे की माँ को दिया जाता था।
बेटी की मांँ को घर से बाहर के कामकाज नहीं कराए जाते थे, जबकि बेटी जनने वाली माँ नामकरण से पहले ही खेतों में भी काम करती दिख जाया करती थी।
बधाई गीतों में नजर आता था बेटी-बेटे का भेद-
बच्चे के जनम के दिन से नामकरण तक शाम के समय बधाई गीत गाने की परंपरा थी, जिसमें पड़ोस की महिलाएं आकर गीत गाती थी। बेटी के जनम पर कई लोग बधाई गीत नहीं गवाते थे।
इन बधाई गीतों में भी बेटी-बेटे का भेद स्पष्ट नजर आता था। एक गीत जिसमें बच्चे के जनम से पहले की जच्चा की मन:स्थिति को दर्शाया गया है-
“मेरे आँगन निबिया झाड़ री।
जो तुम जच्चा रानी लल्ला जनाओगी,
दुंगा-दुंगा ए महल बनाय।
मेरे आँगन ——री।
जो तुम जच्चा रानी लल्ली जनाओगी,
दुंगा-दुंगा ए घर से निकाल।
मेरे आँगन ——-री।
ऐसे ही बेटा जनने पर बेसर गढ़ाय।
बेटी जनने पर नाक कटाय।”
नामकरण की दावत में अंतर-
बेटी के नामकरण के अवसर पर सगे-संबन्धियों को ही न्यौता जाता था, बेटे के नामकरण की दावत बड़ी धूमधाम से की जाती थी। आसपास के गाँवों में भी निमंत्रण दिया जाता था। स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते थे।खाने और खिलाने वाले दोनों के चेहरे दमकते थे। बेटे के दादा-बाबा का यही प्रयास रहता था कि-
“हमारे द्वारा दी गई दावत इलाके भर में सबसे अलग एवं व्यंजन सबसे लजील हों। बेटी के नामकरण का खाना परोसते-खाते हुए लोग ऐसे दु:खी नजर आते थे, जैसे पीपल पानी का प्रसाद पा रहे हों।
बढ़ती उम्र के साथ बड़े भेदभाव-
बेटी चार साल की हो जाए तो उसे छोटे भाई को कमर में लेकर दिनभर घूमना होता था। गलती भाई की हो, तब भी डांट उसी को पड़ती थी। उस नन्हीं सी जान को हर हाल में भाई को खुश रखना होता था। इतनी छोटी उम्र में ही वह जान जाती थी कि “मेरी अपनी जिंदगी का कोई महत्व नहीं है।” पहले-पहल प्रतिकार में कोई शब्द बोला भी तो यह कह कर उसके होंठ सी दिए जाते थे-
“चेली जात है बेर दोरंतर दिंछी, जिबड़ि रुइ द्यूंल (लड़की होकर जुबान चलाती है, जीभ खींच लुंगी)।”
भाई बड़ा हो उम्र में, वह खेल रहा हो तो किसी को कोई परेशानी नहीं होती थी। उससे छोटी बहन झाड़ू लगा रही होती, अपनी हैसियत के अनुसार पानी का बर्तन भर कर लाती, लकड़ी या घास का बोझा लाती तब किसी को उस पर रहम नहीं आता था। ऊपर से कहते-
“भोल हुं पराय घर जाण छ, कसी खाली (भविष्य में ससुराल जाना है, कैसे निभाएगी)?”
भाई-बहन का झगड़ा हो, गलती बहन की सिद्ध की जाती थी। कभी बहन अपने पक्ष में बोले भी तो उल्टा उसी को सुनना पड़ता था-
“पैंली भौ कैं चिचै मारछी, फिर साँच बणन हुं डाड़ मारछी (पहले बच्चे को चिढ़ाती है, फिर रोती है।)।”
बेटी को चार-पाँच वर्ष की उम्र तक पैरों तक लंबा झगुला (वर्तमान समय की मैक्सी) पहनाया जाता था, उसके बाद धोती में लपेट दिया जाता था।
सबसे बड़ा भेदभाव तब होता था, जब बच्चों की उम्र स्कूल जाने की होती थी। इधर, बेटी सुबह से घर की चक्की में पिस रही होती, उधर बेटा कंधे में झोला डाल कर विद्यालय जा रहा होता था।
कुछ सहृदय-जागरूक अभिभावक बेटी को शिक्षा देना भी चाहते तो नाते-रिश्ते वाले या पड़ोसी बीच में बाधा बनकर खड़े हो जाते। उनके तर्क कुछ इस प्रकार के होते थे-
“के हुं चेलि पड़ै बेर, भोल हुं गुवै पोछैलि। (बेटी को क्या पढ़ाना, भविष्य में बच्चों की गंदगी ही साफ करनी है)।”
“पड़िया-चड़ी (पढ़े _लिखे की नजर जमीन पर नहीं होती यानी बिगड़ जाते हैं)।”
“आब दफ्तर में बैठैलि पै (अब दफ्तर में ही बैठेगी)।”
इस प्रकार से अभिभावकों की सोच भी बदल जाती थी।
आचार-व्यवहार की शिक्षा
बेटी को हर पल पर पग पर नसीहतों- हिदायतों का पाठ पढ़ाया जाता था। उसे कान खुले और मुंह बंद रखने का कर्तव्य याद रखने एवं निजी अधिकार भूल जाने का नित्य स्मरण कराया जाता था। उसकी पदचाप की तुलना बिल्ली से की जाती थी-
चेली चाल खुशूपाड़ि बिराऊ जसि हुण चैं (लड़की की चाल बिल्ली की जैसी ध्वनि रहित होनी चाहिए) ।”
संपत्ति के अधिकार में भेदभाव पूर्ण रवैया
बेटी अपनी पैतृक सम्पत्ति की हकदार नहीं मानी जाती थी। बेटा एक हो या चार, संपत्ति का बंटवारा उन्हीं के मध्य होता था। बेटियांँ ही बेटियाँ जिनकी होती थी, वे लोग बेटे की चाहत में दूसरी शादी कर लेते थे। दूसरी शादी से बेटा नहीं हो तो तीसरी शादी यानि बहु विवाह तक की प्रथा थी। वृद्धावस्था तक भी कई दंपति पुत्र सुख से वंचित रह जाते तो उनकी संपत्ति के हकदार भतीजे होते थे। भतीजे की अनुपस्थिति में दस दिनी-ते दिनी बिरादर उस संपत्ति के हकदार माने जाते थे। ऐसे दंपति जिनकी केवल बेटियाँ हों, उनमें से किसी बेटी ने माँ-बाप की जायदाद पर हक जताया भी तो चचेरे-तवेरे भाई पटवारी लेकर आ जाते थे। गाँव के पँच-सरपँच भी उसी भाई के पाले में जा खड़े होते थे।
जिन लोगों के बेटे नहीं होते थे, उन्हें नठवा कहा जाता था। ये भ्रांति भी जन मानस में फैली हुई थी कि “नठवा का धन नहीं लेना चाहिए।”
आशिर्वाद एवं गाली में भी बेटी के लिए हेय दृष्टि-
उन दिनों कृषि आधारित आर्थिकी थी। खेतों में फसल कटाई-घास कटाई (असोज) के समय जरा सा ओड़ा उलंघन में ही महिलाएं गाली-गलौज पर उतर आती थी ये गालियांँ कुछ इस प्रकार की होती थी-
“तेरि नाट है जौ (तेरा वंश नाश हो जाए)। “ये गाली का अभिप्राय बेटों से था।
पाँव छूने पर सुहागिनों को आशिर्वाद दिया जाता था-
“अवैति (सुहागिन) पुत्रवंती”।
छोटी बच्ची को कहते थे-
“त्यार पीठी भै है जौ।”
मिथ्यापरक भेदभाव-
बेटी की तुलना में बेटे का पालन-पोषण अधिक सतर्कता से किया जाता था। लोगों की अवधारणा थी- “चेलियन काव लै नि खान। मरी-मरी अवतार ल्हिनी (लड़कियों को काल भी नहीं पूछता, मर-मर कर जी जाती हैं)।”
इस काल विशेष से गुजरे किसी कलमकार ने सत्य ही लिखा है-
“बोए जाते हैं बेटे, उग आती हैं बेटियाँ।”
पढ़ाए जाते हैं बेटे, पढ़ जाती हैं बेटियांँ।”
बेटों को दूध की खुरचन, घी का मैड़ या भाँग का नमक नहीं दिया जाता था। इसका कारण पथरी होना माना जाता था। बेटी के मामले में वही कहना- “काव लै नि खान।”
लोक गीतों एवं शकुनाखरों में बेटी की स्थिति-
सातों-आठूं लोक पर्व में एक गीत है, जिसमें गौरा माता भादों के महिने अपने मायके आई है। अपनी भाभी से सोने का दिया नेग में माँगती है। भाभी कहती हैं- “तू गाय _भैंस ले जा, कपड़े-लत्ते ले जा। ये दिया मेरे मैके का दहेज है। इसे नहीं दुंगी।”
गौरा माता गुस्से में भाभी को तीखे बोल-बचन कहती हैं-
“तुमन बोज्यू वे चेलियै-चेली होला।
लछुलि बिराई ढड़ुवै-ढड़ू होला।
खेतन तुमारा झड़ुवै-झड़ू होला।”
भाभी गौरा माता से कहती हैं-
“लिजा ननदी सुनै की दीयेड़ी।”
गौरा माता खुश होकर भाभी को आशिर्वाद देती है-
“तुमन बोज्यू वे च्यालै-च्याल होला।
लछुलि बिराई पोथी-पोथी होला।
खेतन तुमारा साल-जमाई।”
हमारे समाज में प्रत्येक मंगल कार्य में शगुन गीत (शकुनाखर)गाने की परंपरा रही है। इन शकुनाखरों में सर्वप्रथम भगवान गणेश जी, श्री राम-लक्ष्मण आदि का नाम लेकर परिवार के पुरुषों का नाम लिया जाता है। घर की कुंवारी एवं ब्याहता बेटियों का नाम शकुनाखरों में निमंत्रण एवं बधाई के गीतों में ही लिया जाता है।
शादी के बाद इन मंगल गीतों में सुहागिन का नाम न लेकर उनके पतियों के नाम के प्रथम अक्षर पर आधारित सुंदरी (पहली शादी की)- मंंजरी (दूसरी शादी की ), खंजरी (तीसरी शादी की) सुहागिन-
“शकूना दे, शकूना देऽ——कमल को फूल।
सोई फूल मोलावांत।
गणेश, रामी चंद्र सहित सभी भाई लव-कुश जीवा जनम।
आद्या——होय।
सोई पाट पैरी रैन।
सिद्धी बुद्धी,सीता देवी बहू राणी आईवंती —-होय।
नवीन चंद्रै,रमेश चंद्रै जीवा जनम।
आद्या——होय।
सोई पाट पैरी रैन।
नंदना सुंदरी_मंजरी_खंजरी।
रमणा सुंदरी_मंजरी_खंजरी।
आईवांती—-होय।”
यहांँ पर ध्यान देने की बात है कि भगवानों की बहुओं के नाम- सीता देही आदि का उच्चारण किया। लेकिन, हम मनुष्यों की सुहागिनों का नाम जैसे नंदना सुंदरी-रमणा सुंदरी लिया गया।
क्यों होता था बेटियों के साथ ऐसा व्यवहार-
कृषि आधारित आर्थिकी होने के कारण प्राचीन काल में जितने बेटे होते थे उतनी बहुएं आती थी, जबकि बेटियाँ पराए घर चली जाती थी। बहु विवाह भी इसका कारण रहता था।
आततायियों की बुरी नजर से बचाने के लिए भी बेटियों की छोटी उम्र में शादी कर दी जाती थी। उस जमाने में ससुराल में बहू के लिए बहुत बुरा सुलूक किया जाता था, इसलिए बेटियों को बचपन से ही उस माहौल में रहने के लिए मानसिक रूप में तैयार किया जाता था। धीरे-धीरे बेटियों के लिए यही सीख अत्याचार में बदलती गई। महिलाएं ही (दादी, सास, ननद, सौतन, पड़ोसन) महिलाओं का शोषण करने लगी।
वर्तमान समय में हमारे समाज में बेटियों के प्रति लोगों की सोच बदल गई है।बेटी के जनम को भी उत्सव की भांँति मनाया जाता है। बेटों की तरह से ही सभी सुविधाएं बेटियों को भी हासिल है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहां बेटी के कदम नहीं पड़े हों।
तारा पाठक
@कॉपी राइट
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