December 24, 2024

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साध्वी सम्बोधिश्री जी की एक रचना ….सफ़र हो रौनक़े जुंबिश सभी रखते यही ख़्वाहिश

साध्वी सम्बोधिश्री
गुजरात

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कशमकश
तर्ज़:— किसी पत्थर की मूरत से
-सम्बोधि काजल-

सफ़र हो रौनक़े जुंबिश
सभी रखते यही ख़्वाहिश
मगर अनचाहे हो जाती
ग़मों की बारहा बारिश
सफ़र हो…..

शख़्सियत कोई ना ऐसी
पसंद करती जो बंदिश को-2
चुभन की चोट दर्दीली
परस्तिश बर पैदाइश को-2
सबक लासानी पोशीदा
दानिशमंदों से है रंजिश-2
सफ़र हो……

गुंजाइश ना नुमाइश की
फरिश्ती ज़ीस्ते आतिश में-2
उठे बालिश की ही उंगली
सुख़नशाही पैदाइश में-2
रुलाती संगे दिल को भी
नियाज़ी मर्द की ग़र्दिश-2
सफ़र हो…..

ज़माना साजिशे अंबार
रचता तल्ख़ बेमानी -2
बस्तियां अर्शो फ़र्शी में
उलझकर होतीं उस्मानी-2
फोहिश दुनियावी दीवारें
गिरें नाकाम कर कोशिश-2
सफ़र हो…..

खलिश ख़ारिश जो ज़ख़्मों में
सुलगती है मज़ा देती-2
बहकते सख़्त जानों के क़दम
ऐसी फ़िज़ां बहती-2
जिंदादिल जांनिसारों की
क़जा लेती है आजमाइश-2
सफ़र हो….

कशिश मज़बूत है फ़ानिश
जहां में ज़िंदा रहने की-2
“सम्बोधि” तीखी या मीठी
उसे ख़ामोश सहने की-2
जले मंजूर कर “काजल”
रिहाईशी ताउम्र वर्जिश-2
सफ़र हो……

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