December 24, 2024

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कवि/शाइर जीके पिपिल की गज़ल … उनके पर्स की आखरी जेब में सिर्फ़ हमारी तस्वीर होती थी

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड


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गज़ल

आज़ नहीं है तो क्या कभी हमारी भी ऐसी तक़दीर होती थी
उनके पर्स की आखरी जेब में सिर्फ़ हमारी तस्वीर होती थी

उन्होंने जब जब भी किसी भी बात को लेकर ख़्वाब देखे थे
एक एक कर उन सभी ख्वाबों की हमसे ही ताबीर होती थी

आज तुम ऊंघ रहे हो कोई ध्यान से सुन नहीं रहा है बज्म में
लोग नाच उठते थे झूम जाते थे जब हमारी तकरीर होती थी

हमारे कहे पर अब तर्क वितर्क होता है बल्कि कुतर्क होता है
कभी हम जो कुछ भी कह देते थे वही सबको नजीर होती थी

कोई करता है शमां रौशन कोई उजालों को जलाता है दीया
जैसे बैजू के राग से जले थे दीए वैसी हमारी तासीर होती थी

आज जो लुटे पिटे से खड़े हुए हैं हम किसी निरीह की तरह
हम कभी भी ऐसे नहीं रहे कभी हमारी भी जागीर होती थी

अब तो मोहब्बत भी वाट्सअप पर है जब जी चाहे मिटा दो
हमारी मोहब्बत मिटती कहां थी पत्थर की लकीर होती थी

हमने कभी कोई फ़ीस नहीं ली सबका मुफ़्त इलाज़ किया है
हमारे पास सब आते थे जब भी किसी को बवासीर होती थी

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