जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड
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गज़ल
माना कि आज हम अपनों से ठगे हुए राह में हैं
मगर अभी भी कुछ बचे हुए सपने निगाह में हैं
हमने चाहा था उसे कभी चाहने वालों की तरह
वो दूसरों का है लेकीन अभी भी मेरी चाह में है
मिलना ना मिलना तो क़िस्मत का खेल है मगर
वो नज़र से दूर सही आज़ भी मेरी परवाह में है
उसे फिर किसी और इबादत की तमन्ना ही नहीं
जो शख़्स आज सजदे में इश्क की दरगाह में है
खुदा की रहमत का दायरा पूरी कायनात पर है
कोई माने ना माने हर शख्स उसकी पनाह में है
वो नाबीना है जन्म से और कान से बहरा भी है
मगर वही शख़्स कतल के चश्मदीद गवाह में है
टूटे साहिल को छूने की कोशिश मत कर बैठना
बिखर जाओगे ये सच्चाई मौज की सलाह में है
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