December 25, 2024

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कवि/शाइर जीके पिपिल की गज़ल … मुकम्मल खसारा करके अभी भी सरमाया ढूंढता है

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड


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गज़ल

मुकम्मल खसारा करके अभी भी सरमाया ढूंढता है
कितना नादान है वो अंधेरे में अपना साया ढूंढता है

जिसकी पेट की आंतड़िया सूख गईं भूख के कारण
वो उसके जर्जर शरीर पर भी कंचन काया ढूंढता है

ये इसकी हवस ही तो है औरों से ज्यादा पा लेने की
अपना तो गंवा दिया औरों का भी कमाया ढूंढता है

कोई तो जल्दी से जग को छोड़कर जाना चाहता है
और वो रूखसती पर भी सांसों में बकाया ढूंढता है

आज़ के युग में कोई हाथ पांव हिलाना नहीं चाहता
अब तो हर आदमी खाने को पका पकाया ढूंढता है

डाली से टूटे हुए फूल फिर से डाली पर लटका पाए
वो बाजार में ऐसा एक नुस्खा बना बनाया ढूंढता है

कोई तो जा रहा है लोगों की कमाई को भी मारकर
कोई चार कंधों की सवारी को भी किराया ढूंढता है

जिसने कभी बाप के भाईयों को अहमियत दी नहीं
वो भी परेशानी में कभी चाचा कभी ताया ढूंढता है

ज़िंदगी सफ़र है उसमें साथी का होना भी जरूरी है
अपने साथ नहीं चलते तब ही कोई पराया ढूंढता है

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