जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड
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गज़ल
क़ैद होकर अपने आप में घुटन में मज़ा आ रहा है
लुटकर किसी के प्यार में लुटन में मज़ा आ रहा है
ज़माने में गुलाब होने की कीमत चुकानी पड़ती है
गुलाब बनकर कांटो की चुभन में मज़ा आ रहा है
किसी के स्पर्श से तन मन आनंदित हुऐ कुछ ऐसे
जैसे बरसात में बूंदों की छुअन में मज़ा आ रहा है
एक ज़माना था जब किसी के लिऐ तड़पते रहे थे
अब तो गम के घावों की दुखन में मज़ा आ रहा है
जबसे जाना कि टूटकर बिखरना भी अन्त नहीं है
तब से प्यार में टूटकर भी टुटन में मज़ा आ रहा है
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