जीके पिपिल
देहरादून
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ग़ज़ल
किनारों पर भी चलता हूं तो भंवर सा लगता है
अपनी गली का नाला अब समंदर सा लगता है।
जबसे देख ली है फ़िल्म कश्मीर फाइल्स हमने
दिन में ख़ुद की परछाईं से भी डर सा लगता है।
सिमटकर बैठ गया हूं अपने ही अंदर इस क़दर
सांस का चलना भी अब तो सफ़र सा लगता है।
जबसे देख लिया बुझते हुए महफूज़ चरागो को
हवा का झोंका भी अब तो बवंडर सा लगता है।
जिन परिंदों का बसेरा उजाड़ दिया है रातों रात
उनका जीवन तो बेवजह की बसर सा लगता है।
किसी आंधी तूफ़ान से नहीं कट्टरता के कारण
अपना घर भी भविष्य का खंडहर सा लगता है।
भविष्य में इन दरिंदों पर कोई विश्वास नहीं करे
इसीलिए सबको बताना ही बेहतर सा लगता है।
शायद इस बार ज़ख्मों पर मरहम लगाया जाए
अब की हुकूमत पर इसका असर सा लगता है।।
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